सारा जीवन एक नाटक है – संबंधो का, बाजार का, घर-गृहस्थी का। सारा जीवन अभिनय है। छोड़कर कहा जाओगे? जहां जाओगे, वहीं फिर कोई नाटक करना पड़ेगा। इसलिए भगोड़े पन के मै पक्ष मे नहीं हूं। कुशल अभिनेता बनो। भागो मत। जानकर अभिनय करो, बेहोशी मे मत करो, होश पूर्वक करो। होश सधना चाहिए। धीरे-धीरे तुम पाओगे कि यह जीवन जीवन न रहा। बिल्कुल नाटक हो गया, तुम अभिनेता हो गए।
अभिनेता होने का अर्थ है कि तुम जो कर रहे हो, उससे तुम्हारी एक बड़ी दूरी हो गई है। जैसे कि राम का अभिनय करता है रामलीला में, अभिनय तो पूरा करता है, राम से बेहतर करता है, क्योंकि राम को कोई रिहर्सल का मौका न मिला होगा। पहली दफे करना पड़ा होगा। तो जो कई दफे कर चुका है, वह राम से बेहतर करेगा। और फिर भी भीतर पार होगा। भीतर जानता है कि कुछ लेना-देना नही है। मंच के पिछे उतर गए, खत्म हो गई बात। मंच के पिछे साथ बैठकर चाय पीते हैं, मंच के उपर धनुष – वाण लेकर खड़े हो जातें हैं। मंच पर दुश्मनी है, मंच के पार कैसी दुश्मनी।
मै तुमसे कहता हूं कि असली राम की भी यही अवस्था थी। इसलिए तो हम उनके जीवन को रामलीला कहते हैं-लीला! वह नाटक हीं था। कृष्णलीला! वह नाटक हीं था। असली राम के लिए भी नाटक हीं था।
नाटक का अर्थ होता है, जो तुम कर रहे हो, उसके साथ तादात्म्य नही है। उसके साथ एक नही हो गए हो, दूर खड़े हो। हजारों मिल का फासला है तुम्हारे कृत्य में और तुम में। तुम कर्ता नही हो, साक्षी हो। तुम देखने वाले हो। यह भ्रांति तुम्हें नहीं है कि तुम कर्ता हो। खो नहीं गए हो, भूल नहीं गए हो। तुम जानते हो यह एक नाटक है।
तुम्हारी आत्मा निर्वस्त्र रहे, नग्न रहे। तुम्हारे चैतन्य पर कोई आवरण न रहे। वहां तो तुम मुक्त हीं रहो, सब आवरण से, सब वस्त्रों से, सब आकारों से..
– ओशो
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